for silent visitors

Tuesday, July 4, 2017

अब तक नहीं चिल्‍ला पायी...


आज सुबह जब जगी तो अलसाया सा मन हो रहा था पर सूरज की लाली आसमां पर दस्त क दे चुकी थी। एक मिनट की भी देरी करूं तो पता नहीं किसका क्या छूटे और कहां देर हो। बेटे का स्‍कूल , पति का ऑफिस और फिर मेरा ऑफिस... इसलिए आलस्य को त्याागने के लिए एक प्याली चाय ली और सोफे पर बैठ गयी।
खाली मन पता नहीं कहां कहां उड़ानें भरने लग जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ मेरे साथ भी। बैठी तो थी सोफे पर मन के भीतर कुछ ऐसे लोग याद आए गए जिनकी एक भी बात याद करो तो मन अजीब हो जाए तभी मैंने अपने ख्यालों को झटके से उतार फेंका और सोचा- नहीं नहीं, सुबह ऐसे लोगों के साथ नहीं। दिल को समझाया कुछ अच्छा सोचो किसी अच्छे पल को याद करो। ऐसे इंसान के बारे में सोचो जिससे होठों पर मुस्कान आए दिल खुश हो और सुबह सुहानी हो जाए।

फिर दिमाग ढूंढने लगा ऐसे पल... मिल भी गए ऐसे लोग जो मेरा भला ही सोचते होंगे लेकिन उनकी खुशी के बजाए उनकी मौजूदा स्थिति से दिल दुखी हो गया। आस-पास कोई खुश नहीं दिखा। सब किसी न किसी चीज के लिए परेशान ही दिखे। क्यों हुआ ऐसा समझ नहीं आता...

प्याली की चाय के साथ सोचने का वक्‍त भी खत्म हो चला था, जुट गयी अपनी रोजमर्रा के काम में। लेकिन दोपहर के एक बज रहे हैं फिर से दिमाग में वही कोलाहल है कहां हैं खुश और सुखी लोग... सब ऊपर से हंसते हैं दिखावे की खुशी है आज सबके पास। मैं हर चीज समझती हूं... उनकी दिखावे की खुशी में मैं भी दिखावे की हंसी हंस लेती हूं पर मेरे मन के एक कोने में भी कचरा भरा पड़ा है।
कभी किसी ने मुझसे कहा था... तुम एक बार खुलकर चिल्लाओ अब मुझे लग रहा हर किसी को चिल्लाने की जरूरत हो गयी है। मन के भीतर जमी दर्द और दुख की परत शायद चिल्लाकर निकल जाए। अगर आप मेरा पोस्ट पढ़ रहे हैं तो आप भी एक बार खुलकर चिल्लाइए फिर देखिए मन कैसा हल्का‍ सा हो जाता है पर ये चिल्लाना भारी काम है बहुत भारी.... मैं अब तक चिल्‍ला नहीं पायी हूं

No comments:

Post a Comment