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Wednesday, August 31, 2011

आ गई मुस्कुराहट


अपनी तारीफ किसे नहीं सुहाती यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे कोई नकार ही नहीं सकता. आज सुबह मेरा भी मन हुआ की कोई मेरे लिए दो लफ्ज तारीफ के बोले पर... कुछ स्पेशल जो पहना था मैंने :) सबने कहा पर जिससे उम्मीद की उसने नहीं. तीन बार पूछा होगा या चार- पांच बार पर हूं हां में जवाब मिला। मुझे लगा शायद अब फोन पर... पर नाउम्मीदी के सिवा कुछ नहीं.
फिर अभी सुबह का वाकया याद आ गया जब तैयार होकर निकल रही थी घर से. भले मुंह से ना बोला हो पर आंखों में शायद कुछ था...।
क्योंकि पूछा था रुमाल है तुम्हारे पास पसीना आ रहा है
एक मुस्कुराहट आ गई मेरे चेहरे पर याद जो आ गया उनका अंदाज।

Wednesday, August 24, 2011

बचपन की याद


आज सुबह-सुबह एक बच्ची की हाथों में नंदन का सितंबर का अंक देखा तो बरबस ही मुझे अपने बचपन की याद आ गई। उस लड़की में मुझे अपनी छवि दिख रही थी। वह आंखें गड़ाए पूरे रास्ते उसी पत्रिका को पढ़ रही थी।
किताबें पढऩे का शौक मुझे बचपन से ही रहा है। पहले नंदन, चंपक चंदामामा, लोटपोट और साथ ही कॉमिक्स का भी खूब आनंद लिया है। जब कुछ बड़ी हुई तो पापा ने मेरा परिचय सुमन सौरभ से कराया वह भी मैंने खूब पढ़ा। हमारे यहां अखबार वाला हर महीने यह पत्रिका दे जाता। पापा ने पढ़ाई में मेरा खूब साथ दिया। हम जब भी गांव जाते तो ट्रेन पर एक नंदन तो मिलती ही थी मुझे मम्मी कहती एक दिन में ही खत्म मत किया करो एक एक कहानी रोज पढो पर मेरा मन नहीं मानता एक दिन क्या मैं एक से डेढ़ घंटे में ही चट कर जाती और दूसरे अंक का बड़ी बेसब्री से शुरू हो जाता इंतजार।
मम्मी कभी कभी परेशान भी होती पर पापा को मेरी इस बात पर भी गर्व ही महसूस होता की इसे दुनिया से कोई मतलब नहीं बस एक किताब मिल जाए ये बातें वे अपने मित्रों के बीच करते बाकी हम भाई-बहन तो उनके मुंह से अपनी तारीफ सुनने को तरस जाते। हां मेरी छोटी बहन इस मामले में काफी भाग्यशाली रही उसने पापा का प्यार खूब पाया शायद भगवान ने निश्चित कर रखा था की उसे 9 साल में ही पापा का उतना प्यार मिल जाए जितना मैनें 19 साल में और भाई ने 13 साल में पाया था। सच पापा उसकी हर गलती माफ कर देते कभी उसे कुछ नहीं कहते वैसे भी छोटी होने के कारण हम सब की भी लाडली थी। अरे! मैं कहां से कहां भटक आई ये सब बातें कभी और।
अभी मैंने किसी से बेनजीर भुट्टो की आपबीती यानी डॉटर औफ इस्ट का हिंदी अनुवाद पढऩे के लिए लिया। कल से ही शुरू किया है पढऩा। चाहती तो हूं की घर पर शांति से पढूं पर वक्त की इतनी किल्लत है कि आफिस आते जाते ही इस किताब के लिए समय निकाल पा रही हूं।
काफी खरे अनुभवों के बाद लिखी गई आपबीती है। जब बेनजीर लिखती हैं कि उन्हें अपनी एक साल की नन्हीं सी बच्ची को खुद से दूर करना पड़ा... कितना मर्मांतक रहा होगा वह क्षण एक मां के लिए... सोच कर ही दिल तड़प उठता है और सबसे कष्टदायक है उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को दी गई फांसी का अफसाना...। जब पढऩा इतना पीड़ादायक है तो जिस पर बीत रही होगी उसका क्या...।

Saturday, August 20, 2011

क्या हो रहा है यहां...

सब समझते हुए सरकार अनजान बन रही है। कोई 74 वर्ष की उम्र में दिनरात बिना कुछ खाए-पिए बेकार की जिद तो नहीं करेगा न...। सबके घर में बूढ़े बुजुर्ग होते हैं उन्हें तो लोग वक्त पर खाना, दवाईयां और सारी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं यहां खुले आसमां के नीचे भूखे प्यासे अन्ना हमारे लिए भूखे हैं देश की भलाई के लिए भूखे हैं और सरकार है कि अपने नखरे अलग दिखा रही है क्यूं.
अभी-अभी प्रधानमंत्री ने कहा कि वो कुछ बोल कर विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहते और सरकार भी मजबूत लोकपाल चाहती है तो जब लोकपाल बिल पारित करने की बात आई तो सरकार ने अपने मतलब का मसौदा लोकपाल पर थोपकर पास कर दिया क्या वह जनता के लिए नहीं है। कैसा लोकतंत्र और आजादी भारत में पनप रहा है और दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है वो भी दोगुनी रफ्तार से। इस भ्रष्टाचार के कीड़े ने सबको इतना खोखला कर दिया है कि सबकी बुद्धि कुंद हो गई है। देखते हैं कि आगे क्या होता है... कहीं इस बूढ़े शरीर को ऊर्जा मिल जाए इसी उम्मीद में....

Saturday, August 13, 2011

कहां गए तारे...

कल रात बरामदे में खड़ी हुई तो अचानक से नजर आसमां पर टिक गई। कुछ देर पहले जहां बादल ही बादल नजर आ रहे थे अब वहां बिल्कुल साफ और धुला धुला आसमान नजर आ रहा था। पूर्णिमा के एक दिन पहले की रात में चंद्रमा की सफेद और दूधिया रोशनी थी फिर अचानक मेरी नजरें तारों को खोजने लगी पर एक भी तारा नहीं ये क्या... चांद के पास जो हमेशा एक सितारा हुआ करता था वो भी नहीं। कहां गए सब के सब तभी मेरा ढाई साल का बेटा जो मेरे कंधे पर सिर टिका सोने की कोशिश कर रहा था बोला ममा चांद मां गोल गोल हैं और टवींकल स्टार कहां है...
ऐसा लगा जैसे वो भी मेरी तरह आसमां में तारे ही खोज रहा था