इसके अनुसार आधी उम्र गुजार दी है मैंने... आज उन गुजरे क्षणों पर अनायास ही नजर चली गयी। गुजरी जिंदगी के सारे पन्ने यूं ही फड़फड़ा रहे हैं। हालांकि कहने को तो मैंने कई पन्नों को फाड़ दिया है पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ऑरिजिनल कॉपी मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में पड़ी है, पुराने पेज पीले हो जाते हैं पर इसकी रंगत जस की तस है, हां थोड़ी सी धूल जम गयी है और रोज पलटा नहीं जाता है इसलिए आपस में चिपके हुए से हैं।
कभी फुर्सत से इन्हें एक एक कर पलटूंगी ...पता नहीं ये वाला फुर्सत कब मिले। सोच कर हंसी सी आ जाती है। मेरी जिंदगी का हरेक पन्नान अपनी सी कहानी लिए हुए है जिसमें कई कड़वी सच्चाेइयां हैं जिन्हेंं सबके सामने पढ़ भी न पाऊं।
पता नहीं कितनी ही परतें हैं। अब लग रहा कि बस मेरी उपरी जिंदगी ही सामान्यच सी बीती है गहरे कहीं अंधकार में कितनी ही सच्चा इयां दफन हैं और जिनसे यह जुड़ी है शायद वे भी इस वाकये को स्वीकार करने से मुकर जाएं या फिर मैं ही इनपर पड़ी धूल को झाड़ना न चाहूं। मैं उन लेखक और लेखिकाओं के हिम्मत की दाद देती हूं जिन्होंने अपनी आत्मकथाएं लिखी हैं। मुझमें वो हिम्मंत इस जिंदगी में तो शायद ही आए।
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