for silent visitors

Friday, October 23, 2015

बचपन का दुर्गा पूजा


इस बार बचपन के दशहरे की खूब याद आयी। 6 साल के अपने बेटे को भी बताया। नवमी के दिन दशहरा का मेला घूमने जाया करती थी... पापा और भाई के साथ। पहले पापा पंडालों में घुमाते- जब उन्‍हें लगता कि अब बहुत हो गया तो पूछते अब चलें घर। हम दोनों भाई बहन भी हामी भर देते। पर उनसे डिमांड करने की हिम्‍मत न हममें थी और न मुझसे चार साल छोटे भाई में। पर पापा सब समझते थे। घुमाने के बाद हमें मिठाई की दुकान पर ले जाते और पूछते क्‍या चाहिए यानि कौन सी मिठाई पर मुझ समोसा बेहद प्रिय था। पापा को बोलती समोसा खाउंगी और वे कहते नहीं, आज के दिन अच्‍छा नहीं होता समोसा मिठाई खा लो। और हम दोनों को मिठाई मिल जाती। आज याद करती हूं तो याद नहीं आता कि पापा अपने लिए मिठाई लेते थे या नहीं। शायद नहीं ही लेते थे हां, घर के लिए पैक करवाते थे। इसके बाद बारी आती खिलौने के दुकान की। ज्‍यादा तो याद नहीं एक बार का याद है, भाई ने एक गुड्डा लिया था और मैंने शायद कोई इयररिंग। फिर वापस घर आ जाते। इसके बाद का याद नहीं कुछ। लेकिन वो याद काफी अच्‍छी है... और इसे भूलना भी नहीं चाहती, शायद कभी भुलूंगी भी नहीं।

Friday, July 24, 2015

हमेशा अलग ही रहा सुबह का रंग...

कहते हैं न कि सुबह हुई तो हर जगह उजियारा होगा और रात हुई तो सब जगह अंधेरा... पर ऐसा है क्‍या, मुझे नहीं लगता। मैं भारत और अमेरिका की बात नहीं कर रही कि यदि भारत में रात है तो अमेरिका में दिन होगा बल्‍कि मैं बात कर रही हूं इसी देश के अलग अलग घर के बारे में। मेरी सुबह हर घर में अलग सी रही है आज तक। कहने का अर्थ जब मम्‍मी के घर पर थी तो सुबह अलग ही थी यहां तक कि वो गंध भी अलग थी जो अब खोजे से भी नहीं मिल सकती शायद। हर उम्र में सुबह के मायने बदलते गए। रात भी अलग ही थी उस वक्‍त। मम्‍मी के साथ सोना और अगर हल्‍का सा बुखार चढ़ गया तब तो मेरे चेहरे को मम्‍मी अपने आंचल से ढक देती थी रात को सोते वक्‍त। उनके आंचल की खुश्‍बू कह लें या मम्‍मी का प्‍यार... बड़ा अच्‍छा होता था वो सब, उस वक्‍त तो ये सब नॉर्मल सा लगता था मतलब स्‍पेशल नहीं पर अब जब काफी दूर हूं और शायद ही वो ममता की छांव मिले तो अच्‍छा लगता है, याद आती है सारी बातें। बिना जिम्‍मेवारियों वाले दिन... आजादी का अहसास। सुबह तो उस वक्‍त भी उठती थी मैं... पढ़ाई की जिम्‍मेवारी भी थी। पर एक अलग सी गंध थी जो आज अभी लिखते वक्‍त भी मेरे नथुनों में समा सी गयी हैं। अभी के मुकाबले इतनी सुविधाएं नहीं थी न इतना बड़ा घर था पर खुशियां ही खुशियां थीं। छोटे भाई बहन का साथ था... यही बहुत था। सुबह की धूप एक ही कमरे में आती थी वो भी छोटी सी खिड़की से, आज हमारे बड़े घर की गैलरी में सुबह की धूप खूब अच्‍छे से आती है पर वो पहले वाला सुबह का रूप ही मिस करती हूं आज भी।

Wednesday, July 8, 2015

किससे बात करूं...

आज सुबह से इतना अच्छा मौसम... बादलों से घिरा आसमान... सूरज का तो पता नहीं कहीं... । पर मन पता नहीं क्यों अजीब सा हो रहा सोचा कहीं किसी से बात कर लूं तो शायद अच्छा महसूस हो। फोनबुक पर कंटैक्ट्स देखने का सिलसिला शुरू हुआ। किससे बात करूं..ऊं ऊं ऊं इससे... नहीं नहीं इससे अरे नहीं यह अपना गाना शुरू कर देगी किससे करूं कोई ऐसा दिखा नहीं जो हंस कर शायद बात कर ले और मेरा मूड सही हो जाए। सोचते सोचते पता ही नहीं लगा कितनी देर से ट्रैफिक में खड़ी हूं। दिल्ली का तो हाल ही बुरा है जरा सी बारिश हुई नहीं की जाम ही जाम। सोच-सोच के और हलकान हो गयी। 10 मिनट का रास्ता आज घंटे भर का बन गया है। अचानक से एक छवि जेहन में उतरी और तय कर लिया अभी इससे ही बात करूंगी मेरा मूड तो अच्छा होगा ही हंस भी लूंगी थोड़ा। साथ ही चिंता भी कि पता नहीं बात करने का उसका मूड हो न हो। फोन मिलाया तो बिजी...। फिर आॅफिस के काम में व्यास्ता हो गयी। दिल में भारीपन सा महसूस होता रहा। अचानक फोन की घंटी बजी... स्क्रीन पर नंबर और नाम देख दिल खुश हो गया। रिसीव करते ही आवाज सुनी तो बोला आज मूड ठीक नहीं जरा ट्यूलिप से बात करा दो... अरे मैं बताना तो भूल ही गयी ट्यूलिप के बारे में। 2 साल की नन्हीं सी गुड़िया है... मेरी भतीजी। हाल ही में एक महीने रह कर गयी है हमारे साथ, शायद इसलिए वो बातें भी कर लेती है हमसे। मीठी सी बातें होतीं हैं उसकी, पूरा वाक्य तो बोलती नहीं वो, हां कुछ शब्द जरूर बोलती है। बात हुई उससे थोड़ी सी ही क्यों्कि वह अपने खिलौनों में बिजी थी। पर मन अच्छा हो गया उसकी मीठी सी आवाज सुनकर। उसकी मम्मी भी इसमें उसकी मदद कर रही थी जैसे चेयर बोलो, म्या ऊं बोलो.... love u beta... god bless u.

Wednesday, April 15, 2015

उलझनें और कशमकश क्‍यूं...


मन का उचाट हो जाना, अजीब सा पल होता है... किसी भी काम में दिल नहीं लगता उस वक्‍त। कभी-कभी तो समझ ही नहीं आता कि ऐसा हो क्‍यूं रहा है। हर चीज अपने गति से सही है, फिर मन में इतनी उलझने और कशमकश क्‍यूं। बिना मतलब कोई बात दिल को चुभ जाती है, चाहे उसका कोई मतलब बने न बने।
और तो और इसे सुलझाना भी खुद ही है, किसी से शेयर करने पर भी यह निश्चित नहीं की आपके दिल का बोझ हल्‍का हो जाएगा। उल्‍टा और भारी हो जाए इसके 99% चांस हैं। इसलिए मैं भी सोच रही हूं,कि किसी से बताकर दिल को और भारी करने के बजाय इसे ऐसे ही छोड़ देती हूं, थोड़ा टाइम लगेगा पर विश्‍वास है किसी न किसी अच्‍छी बात से इस बात को सुकून मिलेगा ही।

Saturday, April 11, 2015

गुम हो गए हैं बेशुमार तारे...


इतना है तुमसे प्याेर मुझे मेरे राजदार, जितने की आसमां पर हैं तारे बेशुमार... कल सुबह ये खूबसूरत गाना रेडियो पर सुना और सोचने लगी बेशुमार तारे देखे तो जमाना हो गया। अब आसमान में इतने तारे कहां रह गए।
एक तो खुला आसमां देखने को नहीं मिलता दूसरा किसी के पास इसके लिए वक्त भी नहीं, पर कल गाने की पंक्ति जैसे मेरे जेहन में बस गयी थी, रात को जब घर में सब सो गए तो मैंने बालकनी से नजर आने वाले खुले आसमां की तरफ अपनी नजरें दौड़ाईं, बेशुमार का मतलब जो निकलता है उस तरह नहीं दिखे तारे जबकि बादल भी कहीं नहीं। मैंने सोचा हो सकता है यहां से ठीक से नजर न आ रहा हो, दूसरी वाली बालकनी से झांका पर वहां भी निराशा... कहीं भी बेशुमार तारे नजर नहीं आए। ऐसा क्याब हो गया है, कहां चले गए सब तारे... या हमारे आपाधापी की जिंदगी को देखते हुए दुखी हो गए हैं ये टिम टिम करते तारे... पता नहीं बचपन में गर्मियों के मौसम में नानी के यहां खुले आंगन में नानी के साथ चारपाई पर सोते हुए इन तारों को देखा करती थी, और नानी हमेशा बोलती थी वो सतभइया (सप्तचर्षि) तारे को मत देखना, अपशगुन होता है। पर कल आसमां में सबसे पहले वही दिखा क्यों कि बाकी सब न जाने कहां खो गए हैं...।