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Thursday, December 29, 2011

अनंत खुशियां लेकर आए नया साल


नया साल हमारे और आपके जीवन में अनंत खुशियां लेकर आए
मुबारक हो नया साल।

Saturday, December 24, 2011

गुस्सा फूटा आज...


अपने कदमों की आहटें आज पता चली...। एक अच्छा अनुभव लगा कि हां... कुछ किया।
मैं काफी इंट्रोवर्ट टाइप हूं जब तक मुसीबत बहुत बड़ी न हो आलसी हो पड़ी रहती हूं। पर आज पता नहीं क्या हो गया था मुझे। शायद उस लेडी के सपोर्ट से प्रोत्साहन मिला।
हुआ यूं कि आज आफिस के लिए देर हो रही थी... मन में आ रहा था कि पता नहीं आज नोएडा जाने के लिए क्या क्या पापड़ बेलने पड़ेंगे। एक तो शनिवार है वैसे ही कम बसें मिलती हैं। तभी बस स्टॉप पर उप्र परिवहन की बस दिखी जो धौला कुआं से नोएडा सेक्टर 62 तक के लिए आती है। इस बस को देखकर भागी। मन ही मन शनिचर महाराज को धन्यवाद कहा। बता दूं कि शनि महाराज मुझपर काफी कुपित रहते हैं।
महारानी बाग स्टॉप पर रुकते ही एक प्राइवेट बस वाला हेकड़ी दिखाता हुआ मेरी बस में चढ़ा और ड्राइवर पर चढ बैठा। इस वक्त कैसे... चलो अब सवारी बैठा ली है तो ठीक आगे बढ़ो लेकिन सेक्टर 12 पर उतार देना।
कंडक्टर ने टिकट काट कर मेरे हाथ में दिया कि सेक्टर 12 तक ही जाएगी बस। मैंने कहा कि फिर बोर्ड क्यों लगाया है 62 का... इतना बोल चुप हो गई मैं। परंतु मेरे पीछे बैठी महिला ने मुझसे ज्यादा बातें सुनाई। उसके बाद वह भी शांत हो बैठ गई।
थोड़ी देर तक मैं अपने मन में सोचती रही कब तक ऐसा चलेगा। और गुस्से से भर गया मेरा मन ।
स्साले चूडिय़ां क्यों नहीं पहन लेते तुम लोग। फेंक दूंगी बोर्ड उठा के... आज 62 तक जाओगे किसी भी हाल में वरना देखती हूं तुम लोगों को...। इसके अलावा भी बहुत कुछ।
पीछे से उस लेडी ने मुझे टोका कंपलेंट करूं फोन पर...मैंने कहा कर दो उसने फोन मिलाया पर किसी ने उठाया नहीं फिर उसने कहा पुलिस को बुलाउंगी ।
तभी कंडक्टर ने कहा खाली करो बस यहां से डिपो जाएगी मैंने सोचा उतर जाऊंगी पर इसका शीशा तो तोड़ ही दूंगी आज।
अचानक उस महिला ने उठकर खिड़की से हाथ निकाला और पुलिस पुलिस चिल्लाने लगी। बस का ड्राइवर सकते में करे तो क्या करे...। फिर बोला शांत हो जाइए आप लोगों को 62 तक छोड़ देता हूं। आखिरकार हम जीत गए थे।
फोर्टिस के पास जब वह उतरने लगी तो मैं गई और उससे हाथ मिलाया।
यहां तो बस दो थे तब ऐसा हुआ सब एकजुट हो जाएं तो दुनिया बदल जाए।
अब सोच रही हूं वो मैं ही थी जिसने इतना कुछ कहा... क्योंकि मैं ऐसे कभी बोलती नहीं :)

Monday, December 19, 2011

गुलाबी नगरी की सैर



चलना है जयपुर, आपको तो पता ही है घूमने में मेरा कितना मन लगता है... लेकिन अभी इस वक्त जाना ठीक रहेगा घर में मेहमान... मन बुझ गया। इतने दिनों बाद तो ये मौका मिला लास्ट टाइम हम मनाली गए थे उसके बाद तो... कहीं जा ही नहीं पाए।
सब मैं मैनेज कर लूंगा तुम बोलो चलना है या नहीं... ठीक है चलूंगी।
मन तो खुश था पर जाहिर नहीं करना चाहती थी अपनी खुशी, कहीं कोई बाधा न आ जाए इस खुशी में। लग रहा था जल्दी रात के बारह बजे और हम उस गुलाबी नगरी के लिए निकल जाएं। आखिर हां-ना के बीच हम निकल ही आए घर से। मेरा बेटा इतना खुश... घुमक्कड़ तो ऐसा है जैसे पूर्वजन्म में इब्नेबतूता रहा हो।
सुन तो बहुत रखा था इस शहर के बारे में देखना आज नसीब होगा सोच के दिल अजीब सी खुशी से भर गया। नींद में जैसे ठोकर लगी... आंख खुली तो इशारा किया देखो, खिड़की से बाहर ओह अरावली की पहाडिय़ां दिख रही थी बस की खिड़की से ऐसा लग रहा था जैसे जयपुर को गोद में हो मुस्कुराहट आ गई चेहरे पर नया शहर वो भी ऐसा ऐतिहासिक। मतलब मैं पहुंच ही गई पिंक सिटी। जयपुर की सुबह अच्छी लग रही थी।
शाम को चोखी ढाणी का प्रोग्राम था पूरी तरह ग्रामीण परिवेश बाजरे की रोटी मिट्टी के चूल्हे पर पकाती एक राजस्थानी महिला इतने प्यार से परोसती है कि बस दिल तो ऐसे ही भर जाता है कहीं जादू का खेल कहीं झूला और तो और राजस्थान के पारंपरिक ड्रेसेज में डांस करती लड़कियां।
उसके बाद दूसरे दिन आमेर का किला ओहो ऐसी बातें इस किले के बारे में कि लगता है उस जमाने में भी क्या लोग हुआ करते थे। महाराजा मान सिंह और उसकी रानियों की कहानी। उनकी खूबसूरती रहने सहने का तरीका कितनी पर्देदारी । इस किले में एक ऐसा सुरंग जो पता नहीं राजा ने किस उद्देश्य से बनवाया होगा। कोई आकर सारी कहानी बता दे उसमें कोई शायद न लगाए... ऐसा जी करता है मेरा।

Monday, November 14, 2011

सॉरी मम्मी...


मां मुझको अपनी आंचल में छुपा ले
गले से लगा ले कि और मेरा कोई नहीं
अब न सताऊंगा मुझे पास बुला ले
ऊंगली पकड़ के तेरी मां मैं चला हूं
तेरे बिना मुझको अब कौन संभाले
गले से लगा ले कि और मेरा कोई नहीं

ये गाना मुझे बहुत पसंद है... आज अनायास ही याद आ गया। एक और बात है मुझे अपनी मम्मी से माफी मांगने का मन कर रहा है, सीधा-सीधा तो बोल नहीं पाऊंगी। आज मेरी एक गलती की वजह से उन्हें काफी कुछ सुनना पड़ा है... वो दुखी हैं उनकी आवाज से मालूम होता है... सॉरी मम्मी।

Thursday, November 10, 2011

कौन सा कपड़ा पहन के गई मम्मा


मैंने अपनी जिंदगी में कई गलतियां की हैं पर सबक उनमें से कुछ ही गलतियों से लिया है। इसे मेरी सबसे बड़ी गलती कह सकते हैं कि सबक लेना जरूरी नहीं समझा...।
अभी मेरा बेटा मुझसे दूर है और कभी कभी इतनी बेचैनी सी उठती है कि लगता है उसे ले आऊं और भींच लूं ऐसे की अब हम दोनों कभी अलग न हो पाएं।
शायद सभी मां को ऐसे ही अनुभव होता हो। पर पता नहीं क्यों मुझे अपराधी सा अहसास होता है लगता है उससे माफी मांग लूं बेटा, गलती हो गई तुम्हें सोता छोड़ आई। बताया भी तो नहीं, कि जा रही हूं अब चार-पांच दिन बाद मिलूंगी।
जब दिल्ली पहुंच कर फोन किया तो उसने एक ही सवाल किया मम्मा तुम कौन सा कपड़ा पहन के चली गई... बस आंखें छलछला उठी। जबकि मुझसे ज्यादा सुरक्षित हाथों में है फिर भी ऐसा अहसास...। हमेशा दिल को लगता है कहीं उसे दिक्कत हो रही होगी।

कुछ ऐसे ही पलों में लिखी पंक्तियां जो अनायास ही दिल में घुमड़ती है :-
जब कोई अपना आपसे छल करे तो कैसा लगता है न...
जब कोई प्यार दिखाए पर उसका कपट दिख जाए तो कैसा लगता है न,
सब जानते हुए भी कुछ न कर पाने की मजबूरी, जैसे गले में कोई भारी गोला सा अटक गया हो,
वो उफ कर के रह जाना कैसा लगता है न...
वो रातों को खुद पर ग्लानि कर आंसू बहाना कैसा लगता है न...
हर बार खुद से यही वादा कि अब ऐसा नहीं होगा दोबारा...
फिर भी वही गलती दोहराना कैसा लगता है न...

Monday, November 7, 2011

...और कितने समझौते


समझौता एक बड़ा सवाल बन गया है, कितना भी भागो पीछे पीछे आ जाता है... मानो कह रहा हो कि नहीं छोडूंगा तुम्हारा साथ जब तक जिंदगी रहेगी।
एक ही शर्त पर छूटेगा हाथ जब तुम जिंदगी हार जाओ...। इतना जिद्दी तो मेरा ढाई साल का मासूम बेटा भी नहीं जिसे मैंने खुद से अलग किया है इसी समझौते को ढो रही हूं। फोन पर पूछा उसने कहां हो मम्मा...? आंख भर आई मेरी अब तक सुना था बस की कलेजा मुंह को आता है पर सच... अब जाकर महसूस हुआ है। बड़ी बेचैनी महसूस होती है लगता है बहुत बड़ी गलती हो गई जो उसे छोड़ आई।
जिंदगी कभी कभी कितना मजबूर कर देती है शायद समझौते पर ही जिंदगी चलती है नहीं तो पता नहीं हर कदम पर कितना बवाल हो।
पता नहीं ये सब के साथ होता है या केवल मेरे साथ ही हो रहा है...। बहुत बड़ा सवाल मुंह बाये सामने खड़ा है अभी तो आधी ही जिंदगी काटी है पता नहीं कितने और समझौते आगे मेरा इंतजार कर रहे हैं?

Tuesday, October 25, 2011

मिस यू...


क्यों बार-बार फोन कर देती हो मम्मी, और एक ही बात पूछती हो... क्या हुआ मैं बिल्कुल ठीक हूं।
अच्छा, मम्मी का जवाब पूछती हैं बिजी हो क्या? नहीं, बिजी तो नहीं हूं पर तुम बार-बार फोन करती हो पैसे भी तो जाते हैं न तुम्हारे..
और कल से मैं बेचैनी से बार-बार फोन कर रही हूं मम्मी बेटू ठीक है न... और मम्मी बोलती हैं हां वो बहुत अच्छे से है।
हां, वो तो होगा देखा मैंने ट्रेन के एक्साइटमेंट में बड़े आराम से बोला, मम्मा, तुम दूसरी ट्रेन से आना मैं फोन करूंगा। पर मेरा ही मन नहीं मान रहा स्टेशन से ट्रेन खुली और मेरी आंख आंसू से भर गए... मन में आया मैं कहीं कठोर तो नहीं हो रही कोई ढ़ाई साल के बच्चे को खुद से अलग करता है क्या...।
अब क्या.... अब तो ट्रेन निकल गई। घर जाने का मन नहीं हम दोनों का ही नहीं। कहीं चलते हैं न...। लगता है उन्हें भी बेटे को भेजना अच्छा नहीं लग रहा बोलते नही पर उनका चेहरे पे सब झलक जाता है।
जब स्टेशन से घर पहुंचते हैं तो उसकी छोटी-छोटी चीजें बिखरी पड़ी हैं, फिर से मन भारी हो गया... उफ ये क्या किया सोते वक्त उसकी बाहें मेरे गले में पड़ती थी बड़ी याद आयी उसकी... लग रहा है कहीं से ले आऊं। उन्हें कहती हूं.. गलत किया हमलोगों ने उसे भेज कर। कहते हैं... कोई नहीं वो बड़े आराम से गया है हंस के बाय भी तो किया उसने और तीन दिन बाद ही तो तुम भी पहुंच जाओगी। पर फोन पर वो भी अपडेट लेना नहीं भूलते। आफिस निकलते वक्त बोलते हैं जरा बेटू से बात कर लो... लगता है उसका बाय करना उन्हें भी खल रहा।
जब खुद मां का रोल निभाना पड़ रहा है तो मम्मी की परेशानी का अंदाजा हो रहा है कि क्यों बार-बार फोन करती हैं मुझे।
बस अब ये तीन दिन गुजर जाए जल्दी से और मैं पहुंच जाऊं उसके पास...।

Saturday, October 22, 2011

आज के सुदामा...


लोग इतने उलझे और टेढे हैं की सीधी नजर से तो साफ दिखते ही नहीं और इस चक्कर में मैं पहली नजर में किसी इंसान को सही समझ लेती हूं और फिर बाद में पता चलता है कि कितने टेढे लोगों से मेरा वास्ता पड़ा है।
खुद कुछ कर नहीं सकते और दूसरों की टांगे खींचने की मंशा रखते हैं। ऐसे ही लोग दूसरों की खुशी से हमेशा जलते हैं। बॉस को गालियां देने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते पता नहीं किसकी पैरवी से नौकरी पा ली तो खुद को तुर्रम खां समझने लगे अरे... एक लाइन खुद से लिख कर दिखाओ तो जाने। हां लेकिन दूसरों को चुनौती देने से घबराते नहीं। शायद उन्हें लगता है कि काफी जीनियस हैं या अगर किसी कंपटीशन में बैठे तो सबसे ज्यादा नंबर उन्हें ही आए और बातें तो देखो फलां मंत्री से हमारी पहचान है अरे उसे तो जो कह दूंगा कर देगा लेकिन सुदामा जो ठहरे बेचारे कृष्ण से कुछ मांगेंगे कैसे...।
मुझे तो हंसी आती है जो दूसरों को कहते हैं तुम्हें तो कुछ नहीं कहेंगे बॉस... हां मुझे कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि मुझमें जो काबिलियत है हो सकता है तुममे न हो इसलिए निखारो उस काबिलियत को ताकि लोग तुम्हें भी सराहे।

Sunday, October 16, 2011

काश तुम आ जाओ मनाने...


क्या ये रिश्ते इतने आसान है कि आपके बोलने से साथ छूट जाएगा
मुझे पता है कि आपको मैं पसंद नहीं
पर जो सात फेरों का बंधन है वह सिर्फ कहने को नहीं वो दिल में गहरे समा जाता है चाहे आप या मैं कितना भी इनकार करें पर यह हो ही नहीं सकता कि हम दोनों के बीच दुश्मनी हो...
जरा जरा सी बात पर गुस्सा हो जाना तीखी बातें कहना नफरत भरा चेहरा पर दिल में कहीं एक छुपी तमन्ना कि तुम एक बार आ जाओ मेरे पास...
माफ तो हर बार कर देते हैं आप
पर इस बार हिम्मत नहीं हो रही बार-बार वही नफरत दिखता है चेहरे पर
चली जाओ छोड़कर मुझे पर क्या आप रह पाएंगे मेरे बिना... चाहे मैं कितनी ही गंवार, बेकार क्यों न हूं पर ये तो मुझे भी पता है कि हम दोनों एक दूसरे के कितने करीब हैं कि अब एक दूजे के बिना जी नहीं पाएंगे और अगर जिएंगे भी तो इसी आस में कि काश तुम आ जाओ मनाने...

Wednesday, August 31, 2011

आ गई मुस्कुराहट


अपनी तारीफ किसे नहीं सुहाती यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे कोई नकार ही नहीं सकता. आज सुबह मेरा भी मन हुआ की कोई मेरे लिए दो लफ्ज तारीफ के बोले पर... कुछ स्पेशल जो पहना था मैंने :) सबने कहा पर जिससे उम्मीद की उसने नहीं. तीन बार पूछा होगा या चार- पांच बार पर हूं हां में जवाब मिला। मुझे लगा शायद अब फोन पर... पर नाउम्मीदी के सिवा कुछ नहीं.
फिर अभी सुबह का वाकया याद आ गया जब तैयार होकर निकल रही थी घर से. भले मुंह से ना बोला हो पर आंखों में शायद कुछ था...।
क्योंकि पूछा था रुमाल है तुम्हारे पास पसीना आ रहा है
एक मुस्कुराहट आ गई मेरे चेहरे पर याद जो आ गया उनका अंदाज।

Wednesday, August 24, 2011

बचपन की याद


आज सुबह-सुबह एक बच्ची की हाथों में नंदन का सितंबर का अंक देखा तो बरबस ही मुझे अपने बचपन की याद आ गई। उस लड़की में मुझे अपनी छवि दिख रही थी। वह आंखें गड़ाए पूरे रास्ते उसी पत्रिका को पढ़ रही थी।
किताबें पढऩे का शौक मुझे बचपन से ही रहा है। पहले नंदन, चंपक चंदामामा, लोटपोट और साथ ही कॉमिक्स का भी खूब आनंद लिया है। जब कुछ बड़ी हुई तो पापा ने मेरा परिचय सुमन सौरभ से कराया वह भी मैंने खूब पढ़ा। हमारे यहां अखबार वाला हर महीने यह पत्रिका दे जाता। पापा ने पढ़ाई में मेरा खूब साथ दिया। हम जब भी गांव जाते तो ट्रेन पर एक नंदन तो मिलती ही थी मुझे मम्मी कहती एक दिन में ही खत्म मत किया करो एक एक कहानी रोज पढो पर मेरा मन नहीं मानता एक दिन क्या मैं एक से डेढ़ घंटे में ही चट कर जाती और दूसरे अंक का बड़ी बेसब्री से शुरू हो जाता इंतजार।
मम्मी कभी कभी परेशान भी होती पर पापा को मेरी इस बात पर भी गर्व ही महसूस होता की इसे दुनिया से कोई मतलब नहीं बस एक किताब मिल जाए ये बातें वे अपने मित्रों के बीच करते बाकी हम भाई-बहन तो उनके मुंह से अपनी तारीफ सुनने को तरस जाते। हां मेरी छोटी बहन इस मामले में काफी भाग्यशाली रही उसने पापा का प्यार खूब पाया शायद भगवान ने निश्चित कर रखा था की उसे 9 साल में ही पापा का उतना प्यार मिल जाए जितना मैनें 19 साल में और भाई ने 13 साल में पाया था। सच पापा उसकी हर गलती माफ कर देते कभी उसे कुछ नहीं कहते वैसे भी छोटी होने के कारण हम सब की भी लाडली थी। अरे! मैं कहां से कहां भटक आई ये सब बातें कभी और।
अभी मैंने किसी से बेनजीर भुट्टो की आपबीती यानी डॉटर औफ इस्ट का हिंदी अनुवाद पढऩे के लिए लिया। कल से ही शुरू किया है पढऩा। चाहती तो हूं की घर पर शांति से पढूं पर वक्त की इतनी किल्लत है कि आफिस आते जाते ही इस किताब के लिए समय निकाल पा रही हूं।
काफी खरे अनुभवों के बाद लिखी गई आपबीती है। जब बेनजीर लिखती हैं कि उन्हें अपनी एक साल की नन्हीं सी बच्ची को खुद से दूर करना पड़ा... कितना मर्मांतक रहा होगा वह क्षण एक मां के लिए... सोच कर ही दिल तड़प उठता है और सबसे कष्टदायक है उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को दी गई फांसी का अफसाना...। जब पढऩा इतना पीड़ादायक है तो जिस पर बीत रही होगी उसका क्या...।

Saturday, August 20, 2011

क्या हो रहा है यहां...

सब समझते हुए सरकार अनजान बन रही है। कोई 74 वर्ष की उम्र में दिनरात बिना कुछ खाए-पिए बेकार की जिद तो नहीं करेगा न...। सबके घर में बूढ़े बुजुर्ग होते हैं उन्हें तो लोग वक्त पर खाना, दवाईयां और सारी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं यहां खुले आसमां के नीचे भूखे प्यासे अन्ना हमारे लिए भूखे हैं देश की भलाई के लिए भूखे हैं और सरकार है कि अपने नखरे अलग दिखा रही है क्यूं.
अभी-अभी प्रधानमंत्री ने कहा कि वो कुछ बोल कर विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहते और सरकार भी मजबूत लोकपाल चाहती है तो जब लोकपाल बिल पारित करने की बात आई तो सरकार ने अपने मतलब का मसौदा लोकपाल पर थोपकर पास कर दिया क्या वह जनता के लिए नहीं है। कैसा लोकतंत्र और आजादी भारत में पनप रहा है और दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है वो भी दोगुनी रफ्तार से। इस भ्रष्टाचार के कीड़े ने सबको इतना खोखला कर दिया है कि सबकी बुद्धि कुंद हो गई है। देखते हैं कि आगे क्या होता है... कहीं इस बूढ़े शरीर को ऊर्जा मिल जाए इसी उम्मीद में....

Saturday, August 13, 2011

कहां गए तारे...

कल रात बरामदे में खड़ी हुई तो अचानक से नजर आसमां पर टिक गई। कुछ देर पहले जहां बादल ही बादल नजर आ रहे थे अब वहां बिल्कुल साफ और धुला धुला आसमान नजर आ रहा था। पूर्णिमा के एक दिन पहले की रात में चंद्रमा की सफेद और दूधिया रोशनी थी फिर अचानक मेरी नजरें तारों को खोजने लगी पर एक भी तारा नहीं ये क्या... चांद के पास जो हमेशा एक सितारा हुआ करता था वो भी नहीं। कहां गए सब के सब तभी मेरा ढाई साल का बेटा जो मेरे कंधे पर सिर टिका सोने की कोशिश कर रहा था बोला ममा चांद मां गोल गोल हैं और टवींकल स्टार कहां है...
ऐसा लगा जैसे वो भी मेरी तरह आसमां में तारे ही खोज रहा था