कुछ लोगों के नाम से ही मुंह कसैला सा हो जाता है। उनसे जुड़ी कड़वी यादें दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट करने लगती है। कल रात मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। हैं तो वो लोग काफी अपने लेकिन उनसे जुड़ी अच्छी़ यादें हैं ही नहीं मेरे रिकार्ड में कहीं भी।
नींद आंखों से कोसों दूर हो गई और वही सब दृश्यो सामने आने लगे। कानों में उनकी व्यंग्य वाली आवाजें गूंजने लगीं। कितनी भी कोशिश की कि उनकी अच्छी बातें याद करूं पर कुछ है ही नहीं। दिमाग को झटकार कर सोने की भी कोशिश की पर ‘न’। जिद्दी दिमाग में एक बार कीड़ा घुस गया तो फिर किसकी हिम्मत कि उसे निकाल-बाहर करे।
दिल ही नहीं करता ऐसे लोगों के लिए कुछ करने का... पर मजबूरी ऐसी है कि न उन्हें छोड़ते बनता है न ही उन्हें नकारते।
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