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Wednesday, August 24, 2011
बचपन की याद
आज सुबह-सुबह एक बच्ची की हाथों में नंदन का सितंबर का अंक देखा तो बरबस ही मुझे अपने बचपन की याद आ गई। उस लड़की में मुझे अपनी छवि दिख रही थी। वह आंखें गड़ाए पूरे रास्ते उसी पत्रिका को पढ़ रही थी।
किताबें पढऩे का शौक मुझे बचपन से ही रहा है। पहले नंदन, चंपक चंदामामा, लोटपोट और साथ ही कॉमिक्स का भी खूब आनंद लिया है। जब कुछ बड़ी हुई तो पापा ने मेरा परिचय सुमन सौरभ से कराया वह भी मैंने खूब पढ़ा। हमारे यहां अखबार वाला हर महीने यह पत्रिका दे जाता। पापा ने पढ़ाई में मेरा खूब साथ दिया। हम जब भी गांव जाते तो ट्रेन पर एक नंदन तो मिलती ही थी मुझे मम्मी कहती एक दिन में ही खत्म मत किया करो एक एक कहानी रोज पढो पर मेरा मन नहीं मानता एक दिन क्या मैं एक से डेढ़ घंटे में ही चट कर जाती और दूसरे अंक का बड़ी बेसब्री से शुरू हो जाता इंतजार।
मम्मी कभी कभी परेशान भी होती पर पापा को मेरी इस बात पर भी गर्व ही महसूस होता की इसे दुनिया से कोई मतलब नहीं बस एक किताब मिल जाए ये बातें वे अपने मित्रों के बीच करते बाकी हम भाई-बहन तो उनके मुंह से अपनी तारीफ सुनने को तरस जाते। हां मेरी छोटी बहन इस मामले में काफी भाग्यशाली रही उसने पापा का प्यार खूब पाया शायद भगवान ने निश्चित कर रखा था की उसे 9 साल में ही पापा का उतना प्यार मिल जाए जितना मैनें 19 साल में और भाई ने 13 साल में पाया था। सच पापा उसकी हर गलती माफ कर देते कभी उसे कुछ नहीं कहते वैसे भी छोटी होने के कारण हम सब की भी लाडली थी। अरे! मैं कहां से कहां भटक आई ये सब बातें कभी और।
अभी मैंने किसी से बेनजीर भुट्टो की आपबीती यानी डॉटर औफ इस्ट का हिंदी अनुवाद पढऩे के लिए लिया। कल से ही शुरू किया है पढऩा। चाहती तो हूं की घर पर शांति से पढूं पर वक्त की इतनी किल्लत है कि आफिस आते जाते ही इस किताब के लिए समय निकाल पा रही हूं।
काफी खरे अनुभवों के बाद लिखी गई आपबीती है। जब बेनजीर लिखती हैं कि उन्हें अपनी एक साल की नन्हीं सी बच्ची को खुद से दूर करना पड़ा... कितना मर्मांतक रहा होगा वह क्षण एक मां के लिए... सोच कर ही दिल तड़प उठता है और सबसे कष्टदायक है उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को दी गई फांसी का अफसाना...। जब पढऩा इतना पीड़ादायक है तो जिस पर बीत रही होगी उसका क्या...।
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mujhe bhi yaad gayi bachpan ki woh baatein, archeis, nanda-champak aur chahcha chudhary
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