इस बार बचपन के दशहरे की खूब याद आयी। 6 साल के अपने बेटे को भी बताया।
नवमी के दिन दशहरा का मेला घूमने जाया करती थी... पापा और भाई के साथ। पहले पापा पंडालों में घुमाते- जब उन्हें लगता कि अब बहुत हो गया तो पूछते अब चलें घर। हम दोनों भाई बहन भी हामी भर देते। पर उनसे डिमांड करने की हिम्मत न हममें थी और न मुझसे चार साल छोटे भाई में। पर पापा सब समझते थे।
घुमाने के बाद हमें मिठाई की दुकान पर ले जाते और पूछते क्या चाहिए यानि कौन सी मिठाई पर मुझ समोसा बेहद प्रिय था। पापा को बोलती समोसा खाउंगी और वे कहते नहीं, आज के दिन अच्छा नहीं होता समोसा मिठाई खा लो। और हम दोनों को मिठाई मिल जाती।
आज याद करती हूं तो याद नहीं आता कि पापा अपने लिए मिठाई लेते थे या नहीं। शायद नहीं ही लेते थे हां, घर के लिए पैक करवाते थे।
इसके बाद बारी आती खिलौने के दुकान की। ज्यादा तो याद नहीं एक बार का याद है, भाई ने एक गुड्डा लिया था और मैंने शायद कोई इयररिंग।
फिर वापस घर आ जाते। इसके बाद का याद नहीं कुछ।
लेकिन वो याद काफी अच्छी है... और इसे भूलना भी नहीं चाहती, शायद कभी भुलूंगी भी नहीं।
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